कालिंजर का किला कहां स्थित है , कालिंजर के किले का इतिहास क्या है , किसने बनवाया , युद्ध कब और किसके साथ हुआ
जाने कालिंजर का किला कहां स्थित है , कालिंजर के किले का इतिहास क्या है , किसने बनवाया , युद्ध कब और किसके साथ हुआ ?
कालिंजर (24.99° उत्तर, 80.48° पूर्व)
कालिंजर उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में स्थित है। यह बुंदेलखण्ड क्षेत्र के प्राचीन स्थलों में से एक है। टालेमी ने इसका उल्लेख ‘कंगोरा’ के नाम से किया है।
इसका कालिंजर नाम भगवान शंकर के कारण पड़ा। प्राचीन जेजाकभुक्ति क्षेत्र में स्थित तथा बुंदेलखंड क्षेत्र का अभिन्न अंग कालिंजर, मध्यकालीन भारत में स्थान एवं किले दोनों की दृष्टि से सामरिक महत्व का एक प्रमख क्षेत्र था। कालिंजर के सशक्त दुर्ग पर 9वीं से 15वीं शताब्दी तक चंदेलों का अधिकार रहा तथा यह मुगलों के अधिकार करने तक बना रहा। 1182 में पृथ्वीराज चैहान द्वारा पराजित होने के उपरांत चंदेलों ने अपनी राजधानी महोबा के स्थान पर कालिंजर को बना लिया था। मुगलों के बाद इस पर अफगानों ने अधिकार कर लिया, यद्यपि अफगान शासक इस प्रयास में मारा गया था।
1569 में अकबर ने कालिंजर पर निर्णायक विजय प्राप्त की तथा इसे अपने दरबार के नवरत्नों में से एक बीरबल को उपहार में दिया। बीरबल से यह छत्रसाल के हाथों में चला गया तथा 1812 में पन्ना रियासत के हरदेव शाह ने इस पर अधिकार कर लिया। 1812 में अंग्रेजों ने इसे हस्तगत कर लिया।
कालिंजर में कई सुंदर शैल निर्मित जलाशय हैं। यहां से धार्मिक महत्व की कई वस्तुएं भी प्राप्त की गई हैं। कालिंजर का किला भारतीय इतिहास के प्रमुख दुर्गों में से एक है।
कालीबंगा (29°28‘ उत्तर, 74°7‘ पूर्व) सिंधु घाटी सभ्यता का महत्वपूर्ण स्थल कालीबंगा, राजस्थान के गंगानगर जिले में स्थित है।
यहां से प्राक् हड़प्पा के अवशेष पाए गए हैं। इस तथ्य की पुष्टि इस बात से होती है कि यहां विकसित हड़प्पा चरण के 4: 2: 1 अनुपात की ईंटों के स्थान पर 3: 2: 1 अनुपात की ईंटें पाई गई हैं। यह नगर दो भागों में विभक्त था-पश्चिमी दुर्ग एवं निचला नगर जो सुरक्षा दीवार से घिरा था।
विकसित हडप्पा चरण में कालीबंगा से खेतों की जताई. मिश्रित कृषि, 4: 2: 1 के अनुपात की पकी ईंटों का प्रयोग एवं अग्निकुंडों (कालीबंगा से ऐसे 7 अग्निकुंड पाए गए हैं) के साक्ष्य पाए गए हैं।
यहां से बुत्रोफेदेन प्रकार की लिपि, कांसे का बैल, एक मानव सर, छः प्रकार के मृदृभाण्ड एवं तीन प्रकार की कब्र भी पाई गई हैं आयताकार कब्र, गोलाकार कब्र तथा विस्तृत कब्रगाह (ईंटों से बनी एक विशेष) कब्र।
कालीबंगा से आद्य हड़प्पाई सोठी संस्कृति के अवशेष भी पाए गए हैं। ऐसा अनुमान है कि इसका कालीबंगा नाम यहां से काले रंग की चूड़ियों के पाए जाने के कारण पड़ा, जो आग लगने के कारण नष्ट हो गयीं थीं।
कल्लुर (लगभग 16° उत्तर, 77° पूर्व)
कल्लुर, कर्नाटक के रायचूर जिले में स्थित एक पुरातात्विक स्थल है। इस स्थल में तत्कालीन हैदराबाद राज्य के पुरातात्विक विभाग के एम. ख्वाजा अहमद ने 1939-40 में सर्वप्रथम उत्खनन किया था। 1930 के दशक में यह स्थान उस समय प्रकाश में आया जब यहां एक विशिष्ट प्रकार की एंटीना तलवारें खोजी गई। ये तलवारें कच्चे तांबे की बनी हुई थीं एवं ये उत्तरी भारत में ताम्र भंडार संस्कृति (जैसे कि फतेहगढ़) में पाई जाने वाली तलवारों के सदृश थीं। यह दक्षिणी भारत में ताम्र भंडार संस्कृति की उपस्थिति का सबसे पहला एवं सबसे प्रमख संकेत था। कल्लर में स्थित परातात्विक स्थल में इससे पहले की खोजें नवपाषाण काल की हैं। (‘कल्लुर‘ शब्द कन्नड़ भाषा से लिया गया है, जिसमें ‘कुल्लु‘ का अर्थ है पत्थर व ‘अरू‘ का अर्थ नगर है। इस क्षेत्र के चारों ओर फैले ग्रेनाइट की पहाड़ियों के कारण इसका नाम कल्लुर पड़ा।) यमिगुड्डा पहाड़ी के ऊपर एक पत्थर का वृहद चेहरा बना है, जिस पर भैसों, सांडों व एक मानव का चित्र बना है। लाल-भरा लेपित मृदभांड भी यहां पाए गए हैं। यहां प्राप्त अन्य वस्तुओं में चकमक पत्थर, मणि, पाषाण की कुल्हाड़ियां, लाल मृदभांड, चूंड़ियां एवं मूल्यवान पत्थरों के मनके हैं। लौह अयस्क से लोहे के गलाने के प्रमाण यहां मिले हैं। यहां पर सातवाहन काल के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं।
वर्तमान में यह गांव केवल एक पुरानी दीवार से घिरा है, जो 13वीं अथवा 14वीं शताब्दी में बनी प्रतीत होती है। इस गांव के अभिलेख अधिकांशतः कल्याणी चालुक्यों से संबद्ध हैं।
यहां पर कुछ बड़े कुएं भी पाए गए हैं। कुछ कुएं तो काफी बड़े हैं जिनमें चिनाई करके सीढ़ियां भी बनाई गई हैं और ये सीढ़ियां कुएं के तल तक जाती हैं। इन कुओं के इतिहास के बारे में ज्यादा जानकारी प्राप्त नहीं हैं।
काल्पी (26.12° उत्तर, 79.73° पूर्व)
काल्पी उत्तर प्रदेश में स्थित है। 10वीं शताब्दी ईस्वी में यह चंदेल शासकों के अधीन एक महत्वपूर्ण नगर था तथा अपने किले के लिए प्रसिद्ध था। 1196 ईस्वी में दिल्ली सल्तनत के कुतुबुद्दीन ने इसे अपने शासन में मिला लिया।
काल्पी, लोधी साम्राज्य का भी हिस्सा था। इब्राहिम लोदी के भाई एवं उसके प्रतिद्वंद्वी जलाल खान लोदी ने काल्पी में विद्रोह कर अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी किंतु वह इब्राहिम लोदी के हाथों पराजित हो गया। चैरासी गुम्बद काल्पी की वास्तुकला का एक सुंदर नमूना है। अपनी निर्माण शैली एवं अलंकरण में यह स्पष्ट रूप से लोदी शैली से साम्यता रखता है। इस गुम्बद की सम्पूर्ण इमारत शतरंज के समान स्तंभों की 8 लाइनों द्वारा कई चैकोर भागों में विभक्त है। ये सभी भाग चापों द्वारा एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं तथा एक समान समतल एवं चपटी छत के अधीन है। इस इमारत का उन्नत गुम्बद 60 फुट ऊंचा है।
अकबर के शासनकाल में काल्पी ‘पश्चिम का द्वार‘ बन गया तथा मध्य एशिया के लिए यात्रा यहीं से प्रारंभ होती थी। 17वीं शताब्दी में बुंदेला शासक छत्रसाल ने काल्पी को अपना गढ़ बना लिया।
18वीं शताब्दी में, काल्पी कुछ समय तक झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के अधीन रहा। अंततोगत्वा 1857 में इस पर अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया।
कालसी (30.33° उत्तर, 78.06° पूर्व)
कालसी दो नदियों टोन्स एवं यमुना के संगम पर उत्तर प्रदेश राज्य में स्थित है। यहां से अशोक का एक वृहद शिलालेख प्राप्त किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि मौर्य काल में यह एक महत्वपूर्ण स्थल रहा होगा।
हाल के पुरातात्विक उत्खननों से यहां ईंटों से निर्मित यज्ञवेदियों के साक्ष्य पाए गए हैं। ये यज्ञवेदियां राजा शिला वर्मन तृतीय द्वारा शताब्दी ईस्वी में चैथे अश्वमेघ यज्ञ के लिए प्रयुक्त की गई थीं। इससे इस तथ्य की पुष्टि होती है कि इस समय तक यह स्थान महत्वपूर्ण रहा होगा।
यहां एक चट्टान पर एक हाथी की आकृति भी बनी हुई है। अनुमान है कि यह अशोक के समय से संबंधित है।
कल्याणी (17°52‘ उत्तर, 76°56‘ पूर्व)
उत्तरी हैदराबाद से पश्चिमी दिशा की ओर लगभग 100 मील की दूरी पर स्थित कल्याणी वर्तमान समय में आंध्र प्रदेश में स्थित है। किसी समय कल्याणी प्रसिद्ध चालुक्य शासकों की राजधानी थी। उत्तरवर्ती या पश्चिमी चालुक्यों ने कल्याणी पर लगभग 200 वर्षों तक शासन किया। यह काल 8वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से 12वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक था। कल्याणी की स्थापना सोमेश्वर प्रथम द्वारा की गई थी, तथा 12वीं शताब्दी तक यह निरंतर पश्चिमी चालुक्यों की राजधानी बनी रही। विक्रमादित्य षष्ठम, त्रिभुवनमल्ल (1076-1127) चालुक्यों की पश्चिमी शाखा का एक महान शासक था। विक्रमादित्य षष्ठम ने अपने शासन के प्रारंभ होने के उपलक्ष्य में ‘विक्रम संवत‘ की स्थापना की। इसके दरबार को साहित्य के क्षेत्र की कई महान विभूतियां सुशोभित करती थीं, जिनमें सबसे प्रमुख बिल्हण थे। बिल्हण ने ‘विक्रमांगदेव चरित‘ की रचना की। हिन्दू विधि के महान शास्त्रकार एवं ‘मिताक्षरा‘ के लेखक विज्ञानेश्वर भी इसी के दरबार में थे।
कामरूप/कामरूपा
प्राचीन काल में असम की ब्रह्मपुत्र घाटी कामरूप साम्राज्य का केंद्र थी, जिसकी राजधानी प्रागज्योतिषपुर (आधुनिक गुवाहाटी) थी। यह साम्राज्य करातोया नदी की ओर विस्तृत हुआ। कामरूप, पूर्वी भारत एवं पूर्वी तिब्बत एवं चीन को आपस में जोड़ता था तथा इससे इस क्षेत्र के मैदानी भाग में व्यापार एवं वाणिज्य को व्यापक प्रोत्साहन मिला। 350 से 650 ई. के मध्य लगभग तीन शताब्दियों तक कामरूप पुष्यवर्मन वंश के शासकों द्वारा शासित होता रहा। समुद्र गुप्त के इलाहाबाद स्तंभ लेख में कामरूप का उल्लेख गुप्त साम्राज्य के बाहर एक सीमावर्ती राज्य के रूप में किया गया था। इसका शासक समुद्र गुप्त राजस्व अदा करता था। 13वीं शताब्दी के कामरूप के शासक भाष्करवर्मन की हर्षवर्धन से घनिष्ठ मित्रता थी। हर्ष ने बंगाल के शासक शशांक के विरुद्ध अपने अभियान में भाष्करवर्मन से सहायता प्राप्त की थी। शशांक की मृत्यु के उपरांत भाष्करवर्मन ने बंगाल के एक बड़े भू-भाग को अधिकृत कर लिया था। असम के दक्षिण-पूर्व में स्थित अहोम को 13वीं शताबदी में कामरूप ने विजित कर लिया था तथा इस क्षेत्र का नाम ‘असम‘ रखा, जो अहोम से ही व्युत्पन्न है।
कांपिल्य/काम्पिली
काम्पिली या कांपिल्य मध्य काल में तुंगभद्रा घाटी का एक प्रमुख क्षेत्र स्थल था (वर्तमान बेल्लारी जिला, कर्नाटक)। यह विजयनगर साम्राज्य से लगभग 10 मील की दूरी पर स्थित था। वर्तमान समय के रायचूर एवं धारवाड़ जिले इसी में सम्मिलित थे। काम्पिली, मूलतः यादव साम्राज्य में सम्मिलित था, किंतु जब दिल्ली सल्तनत ने यादवों के देवगिरी राज्य को अधिकृत कर लिया, तो काम्पिली स्वतंत्र हो गया। इसके शासक ने 1326 में मुहम्मद बिन तुगलक के विरुद्ध विद्रोह करने वाले बहाउद्दीन गुर्शास्प को प्रश्रय प्रदान किया था। इसके कारण दिल्ली सल्तनत की सेनाओं ने कांपिल्य पर आक्रमण कर दिया तथा दो माह के युद्ध के उपरांत काम्पिली के किले पर अधिकार कर लिया। लेकिन जब मुहम्मद बिन तुगलक ने मुस्लिम विद्रोही को आश्रय दिया, तो दोनों भाइयों को पकड़ कर जेल में डाल दिया गया तथा दिल्ली भेजकर उनका धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम बनाया गया तथा काम्पिली के विद्रोहियों से निबटने के लिए नियुक्त किया गया। दोनों भाइयों ने तुंगभद्रा के तट पर नया नगर विजयनगर बसाने से पहले काम्पिली पर अपना प्रभाव डाला।
कन्नौज (27.07° उत्तर, 79.92° पूर्व)
कन्नौज का क्षेत्र वर्तमान उत्तर प्रदेश में था। प्राचीन धार्मिक ग्रंथों जैसे-महाभारत एवं रामायण में कन्नौज का विभिन्न नामों से उल्लेख किया गया है। जैसे-महोदय, कुशास्थली, कान्यकुब्ज एवं गांधीपुरी। छठी शताब्दी ईसा पूर्व के प्रारंभ में यह मौखरियों की राजधानी थी तथा इसके पहले यह गुप्तों के नियंत्रण में थी। मौखरी वंश के अंतिम शासक गृहवर्मा की विद्रोहियों ने हत्या कर दी थी। इसकी पत्नी राज्यश्री, थानेश्वर के शासक हर्षवर्धन की भगिनी थी। गृहवर्मा की मृत्यु के उपरांत राज्यश्री को संरक्षक बनाकर हर्षवर्धन ने कन्नौज का शासन अपने हाथों में ले लिया तथा लगभग 42 वर्षों (606-47 ई.) तक वहां का शासन संभाला।
8वीं शताब्दी के दौरान, कन्नौज गुर्जर-प्रतिहार, पाल एवं राष्ट्रकूटों के मध्य त्रिपक्षीय संपर्क का कारण बन गया। इस संघर्ष में अंततः गुर्जर-प्रतिहारों को सफलता मिली तथा उन्होंने कन्नौज पर अधिकार कर लिया। यद्यपि 11वीं शताब्दी के प्रारंभ में कन्नौज पर महमूद गजनवी ने अधिकार कर लिया। इसके बाद कन्नौज के गहड़वाल शासक जयचंद्र को मुहम्मद गौरी ने चंदावर के युद्ध में पराजित किया।
आगे चलकर कन्नौज मुगलों के नियंत्रण में आ गया। 1540 ई. में कन्नौज के युद्ध में ही शेरशाह सूरी ने हुमायूं को पराजित कर दिल्ली पर अधिकार कर लिया था।
वर्तमान में कन्नौज एक फलता-फूलता शहर है तथा अपने इत्र उद्योग के लिए प्रसिद्ध है।
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