अभिलेख स्रोत किसे कहते हैं ? पुरालिपिशास्त्र (पेलिअंग्रेफी) की परिभाषा क्या है ?
पुरालिपिशास्त्र (पेलिअंग्रेफी) की परिभाषा क्या है ? अभिलेख स्रोत किसे कहते हैं ?
अभिलेख
सिक्कों से भी कहीं अधिक महत्त्व के हैं अभिलेख। इनके अध्ययन को पुरालेखशास्त्र (एपिग्रेफी) कहते हैं, और इनकी तथा दूसरे पुराने दस्तावेजों की प्राचीन तिथि के अध्ययन को पुरालिपिशास्त्र (पेलिअंग्रेफी) कहते हैं । अभिलेख मुहरों, प्रस्तरस्तंभों, स्तूपों, चट्टानों और ताम्रपत्रों पर मिलते हैं तथा मंदिर की दीवारों और ईंटों या मूर्तियों पर भी।
समग्र देश में आरंभिक अभिलेख पत्थरों पर खुदे मिलते हैं। किंतु ईसा के आरंभिक शतकों में इस काम में ताम्रपत्रों का प्रयोग आरंभ हुआ। तथापि पत्थर पर अभिलेख खोदने की परिपाटी दक्षिण भारत में व्यापक स्तर पर जारी रही। दक्षिण भारत मैं मंदिर की दीवारों पर भी स्थायी स्मारकों के रूप में भारी संख्या में अभिलेख खोदे गए है।
सिक्कों की तरह अभिलेख भी देश के विभिन्न संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। सबसे अधिक अभिलेख मैसूर में मुख्य पुरालेखशास्त्री के कार्यालय में संगृहीत हैं। आरंभिक अभिलेख प्राकृत भाषा में है और ये ईसा-पूर्व तीसरी सदी, के हैं। अभिलेखों में संस्कृत भाषा ईसा की दूसरी सदी से मिलने लगती है, और चैथी-पाँचवी सदी में इसका सर्वत्र व्यापक प्रयोग होने लगा। तब भी प्राकृत का प्रयोग समाप्त नहीं हुआ। अभिलेखों में प्रादेशिक भाषाओं का प्रयोग नौवी-दसवीं सदी से होने लगा। मौर्य, मौर्याेत्तर और गुप्तकाल के अधिकांश अभिलेख कार्पस इन्सक्रिप्शनम इंडिकेरम् नामक ग्रंथमाला में संकलित करके प्रकाशित किए गए हैं। परंतु गुप्तोत्तर काल के अभिलेख अभी तक इस प्रकार सुव्यवस्थित रूप से संकलित नहीं हुए हैं। दक्षिण भारत के अभिलेखों की स्थानक्रम सूचियाँ प्रकाशित हुई हैं। फिर भी 50,000 से भी अधिक अभिलेख, जिनमें अधिकांश दक्षिण भारत के हैं, प्रकाशन की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
हड़प्पा संस्कृति के अभिलेख अभी तक पढ़े नहीं जा सके हैं। ये संभवतः ऐसी किसी भावचित्रात्मक लिपि में लिखे गए हैं जिसमें विचारों और वस्तुओं को चित्रों के रूप में व्यक्त किया जाता था। अशोक के शिलालेख ब्राह्मी लिपि में है। यह लिपि बाएँ से दाएँ लिखी जाती थी। उसके कुछ शिलालेख खरोष्ठी लिपि में भी हैं जो दाएँ से बाएँ लिखी जाती थी, लेकिन पश्चिमोत्तर भाग के अलावा भारत में भिन्न प्रदेशों में ब्राह्मी लिपि का ही प्रचार रहा। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के अशोक के शिलालेखों में यूनानी और आरामाइक लिपियों का भी प्रयोग हुआ है। गुप्तकाल के अंत तक देश की प्रमुख लिपि ब्राह्मी ही रही। यदि ब्राह्मी और इसकी विभिन्न शैलियों का भली-भाँति ज्ञान हो जाए तो कोई भी पुरालेखविद् ईसा की आठवीं सदी तक के अधिकांश पुरालेखों को पढ़ सकता है। परंतु इसके बाद इस लिपि की प्रादेशिक शैलियों में भारी अंतर आ गया और इन्हें अलग-अलग नाम दे दिए गए।
सबसे पुराने अभिलेख हड़प्पा संस्कृति की मुहरों पर मिलते हैं। ये लगभग 2500 ई० पू० के हैं। इनका पढ़ना अब तक संभव नहीं हुआ है। देश के सबसे पुराने अभिलेख जो पढ़े जा चुके हैं, वे हैं ईसा-पूर्व तीसरी सदी के अशोक के शिलालेख। चैदहवीं सदी में फिरोजशाह तुगलक को अशोक के दो स्तंभलेख मिले थे, एक मेरठ में और दूसरा हरियाणा के टोपरा नामक स्थान में। उसने इन्हें दिल्ली मंगवाया और अपने राज्य के पंडितों से पढ़वाने का प्रयास किया, पर कोई भी पंडित पढ़ नहीं पाया। अठारहवीं सदी के अंतिम चरण में अंग्रेजों ने इन्हें पढ़ने की कोशिश की तो उन्हें भी इसी कठिनाई का सामना करना पड़ा। इन अभिलेखों को पढ़ने में सर्वप्रथम 1837 में सफलता मिली जेम्स प्रिंसेप को जो उस समय बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में ऊँचे पद पर थे।
अभिलेखों के अनेक प्रकार हैं। कुछ अभिलेखों में अधिकारियों और जनता के लिए जारी किए गए सामाजिक, धार्मिक तथा प्रशासनिक राज्यादेशों और निर्णयों की सचनाएँ रहती हैं। अशोक के शिलालेख इसी कोटि के हैं। दूसरी कोटि में वे आनुष्ठानिक अभिलेख आते हैं जिन्हें बौद्ध, जैन, वैष्णव, शैव आदि संप्रदायों के अनुयायियों ने भक्तिभाव से स्थापित स्तंभों, प्रस्तरफलकों, मंदिरों और प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण कराया है। तीसरी कोटि में वे प्रशस्तियाँ आती है जिनमें राजाओं और विजेताओं के गुणों और कीर्तियों का बखान तो है, पर उनकी पराजयों और कमजोरियों का कोई जिक्र नहीं है। समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति इस कोटि का उदाहरण है। इन सभी के अलावा, बहुत-सारे ऐसे दान-पत्र मिलते हैं जिनमें न केवल राजाओं और राजपुत्रों द्वारा, बल्कि शिल्पियों और व्यापारियों द्वारा भी मुख्यतः धर्मार्थ, पैसा, मवेशी, भूमि आदि के दान अभिलिखित हैं।
मुख्यतः राजाओं और सामंतों द्वारा किए गए भूमिदान के अभिलेख विशेष महत्त्व के हैं, क्योंकि इनमें प्राचीन भारत की भूव्यवस्था और प्रशासन के बारे में उपयोगी सूचनाएँ मिलती हैं। ये अभिलेख अधिकतर ताम्रपत्रों पर उकेरे गए हैं। इनमें भिक्षुओं, ब्राह्मणों, मंदिरों, विहारों, जागीरदारों और अधिकारियों को दिए गए गाँवों, भूमियों और राजस्व के दानों का विवरण है। ये विभिन्न भाषाओं में लिखे मिलते हैं, जैसे प्राकृत, संस्कृत, तमिल, तेलुगु आदि।
साहित्यिक स्रोत
यद्यपि प्राचीन भारत के लोगों को लिपि का ज्ञान 2500 ई० पू० में भी था, परंतु हमारी प्राचीनतम उपलब्ध पांडुलिपियाँ ईसा की चैथी सदी के पहले की नहीं हैं और ये भी मध्य एशिया से प्राप्त हुई हैं। भारत में पांडुलिपियाँ भोजपत्रों और तालपत्रों पर लिखी मिलती हैं, परंतु मध्य एशिया में जहाँ भारत से प्राकृत भाषा फैल गई थी, ये पांडुलिपियाँ मेषचर्म तथा काष्ठफलकों पर भी लिखी गई हैं। इन्हें हम भले ही अभिलेख कह दें, परंतु हैं ये एक प्रकार की पांडुलिपियाँ हीं। उन दिनों मुद्रण कला का आविष्कार नहीं हुआ था, इसलिए ये पांडुलिपियाँ मूल्यवान समझी जाती थीं। वैसे तो समूचे भारत में संस्कृत की पुरानी पांडुलिपियाँ मिली हैं, परंतु इनमें से अधिकतर दक्षिण भारत, कश्मीर और नेपाल से प्राप्त हुई हैं। आजकल अधिकांश अभिलेख संग्रहालयों में और पांडुलिपियाँ पुस्तकालयों में संचित-सुरक्षित हैं।
अधिकांश प्राचीन ग्रंथ धार्मिक विषयों पर हैं। हिंदुओं के धार्मिक साहित्य में वेद, रामायण, महाभारत, पुराण आदि आते हैं। यह साहित्य प्राचीन भारत की सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थिति पर काफी प्रकाश डालता है। किंतु देश और काल के संदर्भ में इसका उपयोग करना बड़ा ही कठिन है। ऋग्वेद को 1500-1000 ई० पू० के लगभग का मान सकते हैं। लेकिन अथर्ववेद, यजुर्वेद, ब्राह्मणों, आरण्यकों और उपनिषदों को 1000-500 ई० पू० के लगभग का माना जाएगा। प्रायः सभी वैदिक ग्रंथों में क्षेपक मिलता है जो सामान्यतः आदि या अंत में रहता है। यों ग्रंथ के बीच में भी क्षेपक का पाया जाना कोई असाधारण बात नहीं हैं। ऋग्वेद में मुख्यतः देवताओं की स्तुतियाँ हैं, परंतु बाद के वैदिक साहित्य में स्तुतियों के साथ-साथ कर्मकांड, जादूटोना और पौराणिक आख्यान भी हैं । हाँ, उपनिषदों में हमें दार्शनिक चिंतन मिलते हैं।
वैदिक मूलग्रंथ का अर्थ समझ में आए इसके लिए वेदांगों अर्थात् वेद के अंगभूत शास्त्रों का अध्ययन आवश्यक था। ये वेदांग हैं शिक्षा (उच्चारण-विधि), कल्प (कर्मकांड), व्याकरण, निरूक्त (भाषाविज्ञान), छंद और ज्योतिष। इनमें से प्रत्येक शास्त्र के चतुर्दिक प्रचुर साहित्य विकसित हुए हैं। यह साहित्य गद्य में नियम रूप में लिखा गया है। संक्षिप्त होने के कारण ये नियम सूत्र कहलाते हैं। सूत्र लेखन का सबसे विख्यात उदाहरण है पाणिनि का व्याकरण जो 450 ई० पू० के आसपास लिखा गया था। व्याकरण के नियमों का उदाहरण देने के क्रम में पाणिनि ने अपने समय के समाज, अर्थव्यवस्था और संस्कृति पर अमूल्य प्रकाश डाला।
महाभारत, रामायण और प्रमुख पुराणों का अंतिम रूप से संकलन 400 ई० के आसपास हुआ प्रतीत होता है। इनमें महाभारत, जो व्यास की कृति माना जाता है, संभवतः दसवीं सदी ईसा पूर्व से चैथी सदी ईसवी तक की स्थिति का आभास देता है। पहले इसमें केवल 8800 श्लोक थे और इसका नाम जयस था जिसका अर्थ है विजय संबंधी संग्रह ग्रंथ। बाद में यह बढ़कर 24,000 श्लोक का हो गया और भारत नाम से प्रसिद्ध हुआ क्योंकि इसमें प्राचीनतम वैदिक जन भरत के वंशजों की कथा है। अंततः इसमें एक लाख श्लोक हो गए और तदनुसार यह शतसाहस्री संहिता या महाभारत कहलाने लगा। इसमें कथोपकथाएँ हैं, वर्णन हैं और उपदेश भी हैं। इसकी मूल कथा, जो कौरवों और पांडवों के युद्ध की है, उत्तर वैदिक काल की हो सकती है। इसके विवरणात्मक अंश का उपयोग वेदोत्तर काल के संदर्भ में किया जा सकता है, और उपदेशात्मक अंश का सामान्यतः मौर्याेत्तर काल और गुप्तकाल के संदर्भ में। इसी प्रकार, वाल्मीकि रामायण में मूलतः 6000 श्लोक थे, जो बढ़कर 12,000 श्लोक हो गए और अंततः 24,000 श्लोक। यद्यपि यह महाकाव्य महाभारत की अपेक्षा अधिक ठोस है, तथापि इसमें भी कुछ ऐसे उपदेशात्मक भाग हैं जो बाद में जोड़ दिए गए हैं। इसकी रचना संभवतः ईसा-पूर्व पाँचवी सदी में शुरू हुई। तब से यह पाँच अवस्थाओं से गुजर चुकी है और इसकी पाँचवी अवस्था तो ईसा की बारहवीं सदी में आई है। मिलाजुलाकर इसकी रचना महाभारत के बाद हुई प्रतीत होती है। वैदिक काल के बाद कर्मकांड साहित्य की भरमार मिलती है। राजाओं के द्वारा और तीन उच्च वर्णों, धनाढ्य पुरुषों द्वारा अनुष्ठेय सार्वजनिक यज्ञों के विधि-विधान श्रौतसूत्रों में दिए गए हैं, और इन्हीं में राज्याभिषेक के कई आडंबरपूर्ण अनुष्ठान भी वर्णित हैं। इसी तरह जातकर्म (जन्मानुष्ठान), नामकरण, उपनयन, विवाह, श्राद्ध आदि घरेलू या पारिवारिक अनुष्ठानों का विधि विधान गृह्यसूत्रों में पाया जाता है। श्रौतसूत्र और गहयसूत्र दोनों ईसा-पूर्व 600-300 के आसपास हैं। यहाँ शूल्वसूत्र भी उल्लेखनीय हैं जिनमें यज्ञवेदी के निर्माण के लिए विविध प्रकार के मापों का विधान है। ज्यामिति और गणित का अध्ययन वहीं से आरंभ होता है।
जैनों और बौद्धों के धार्मिक ग्रंथों में ऐतिहासिक व्यक्तियों और घटनाओं का उल्लेख मिलता है। प्राचीनतम बौद्ध ग्रंथ पालि भाषा में लिखे गए थे। यह भाषा मगध यानी दक्षिण बिहार में बोली जाती थी। इन ग्रंथों को अंततः संकलित तो किया गया श्रीलंका में, ईसा-पूर्व दूसरी सदी में, पर इनके धर्म-शिक्षात्मक अंश बुद्ध के समय की स्थिति बताते हैं। इन ग्रंथों में हमें न केवल बुद्ध के जीवन के बारे में, बल्कि उनके समय के मगध, उत्तर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई शासकों के बारे में भी जानकारी मिलती है। बौद्धों के धार्मिकेतर साहित्य में सबसे महत्त्वपूर्ण और रोचक हैं गौतम बुद्ध के पूर्वजन्मों की कथाएँ। ऐसा विश्वास था कि गौतम के रूप में जन्म लेने से पहले बुद्ध 550 से भी अधिक पूर्वजन्मों से गुजरे थे और इनमें से कई जन्मों में उन्होंने पशु के जीवन पाए थे। पूर्वजन्मों की वे कथाएँ जातक कहलाती हैं और प्रत्येक कथा एक प्रकार की लोक कथा है। ये जातक ईसा पूर्व पाँचवी सदी से दूसरी सदी ईसवी सन् तक की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर बहुमूल्य प्रकाश डालते हैं। प्रसंगवश ये कथाएँ बुद्धकालीन राजनीतिक घटनाओं की भी जानकारी देती हैं।
जैन ग्रंथों की रचना प्राकृत भाषा में हुई थी। ईसा की छठी सदी में गुजरात के वलभी नगर में इन्हें अंतिम रूप से संकलित किया गया था। फिर भी इन ग्रंथों में ऐसे अनेक अंश हैं जिनके आधार पर हमें महावीरकालीन बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक इतिहास के पुनर्निर्माण में सहायता मिली है। जैन ग्रंथों में व्यापार और व्यापारियों के उल्लेख बार-बार मिलते हैं।
लौकिक साहित्य भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। विधि-ग्रंथों को उसी कोटि में रखा जा सकता है। उन ग्रंथों में धर्मसूत्र, स्मृतियाँ और टीकाएँ पड़ती हैं और इन तीनों को मिलाकर धर्मशास्त्र कहा जाता है। धर्मसूत्रों का संकलन 500-200 ई० पू० में हुआ था। मुख्य स्मृतियाँ ईसा की आरंभिक छह सदियों में संहिताबद्ध की गईं। इनमें विभिन्न वर्गों, राजाओं और पदाधिकारियों के कर्तव्यों का विधान किया गया है। इनमें संपत्ति के अर्जन, विक्रय और उत्तराधिकार के नियम सहित विवाह के विधान भी दिए गए हैं, तथा चोरी, हमला, हत्या, व्याभिचार आदि के लिए दंड विधान किया गया है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र अत्यंत महत्त्वपूर्ण विधिग्रंथ है। यह पंद्रह अधिकरणों या खंडों में विभक्त है जिनमें दूसरा और तीसरा अधिक पुराने हैं। लगता है कि इन अधिकरणों की रचना विभिन्न लेखकों ने की है। इस ग्रंथ का वर्तमान रूप ईसवी सन् के आरंभ में दिया गया, परंतु इसके प्राचीनतम अंश मौर्यकालीन समाज और अर्थतंत्र की झलक देते हैं। इसमें प्राचीन भारतीय राज्यतंत्र तथा अर्थव्यवस्था के अध्ययन के लिए महत्त्वपूर्ण सामग्री मिलती है।
हमें भास, शूद्रक, कालिदास और बाणभट्ट की रचनाएँ भी प्राप्त हैं। इनका साहित्यिक मूल्य तो है ही, इनमें लेखकों के अपने-अपने समय की स्थितियाँ भी प्रतिबिंबित हैं। कालिदास ने काव्य और नाटक लिखे, जिनमें सबसे प्रसिद्ध है अभिज्ञानशाकुंतलम। इन महान सर्जनात्मक कृतियों में गुप्तकालीन उत्तरी और मध्य भारत के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन की झलक मिलती है।
इन संस्कृत स्रोतों के अलावा, कुछ प्राचीनतम तमिल ग्रंथ भी है जो संगम साहित्य में संकलित हैं। राजाओं द्वारा संरक्षित विद्या केंद्रों में एकत्र होकर कवियों और भाटों ने तीन-चार सदियों में इस साहित्य का सृजन किया था। ऐसी साहित्यिक सभा को संगम कहते थे, इसलिए समूचा साहित्य संगम साहित्य के नाम से प्रसिद्ध हो गया। कहा जाता है कि इन कृतियों का संकलन ईसा की आरंभिक चार सदियों में हुआ, हालाँकि इनका अंतिम संकलन छठी सदी में हुआ जान पड़ता है।
संगम साहित्य के पद्य 30,000 पंक्तियों में मिलते हैं, जो आठ एट्टत्तौके अर्थात् संकलनों में विभक्त है। पद्य सौ-सौ के समूहों में संगृहीत हैं, जैसे पुरनानूरु (बाहर के चार शतक) आदि। मुख्य समूह दो हैंः पटिनेडिकल पट्टिनेनकील कणक्कु (अठारह निम्न संग्रह) और पत्तपाट्ट (दस गीत)। पहला दूसरे से पुराना माना जाता है, इसलिए लौकिक इतिहास के लिए महत्त्वपूर्ण समझा जाता है। संगम ग्रंथ बहुस्तरीय हैं, परंतु संप्रति शैली और विषयवस्तु के आधार पर उनका स्तर निर्धारण नहीं किया जा सकता है । जैसा कि आगे बताया गया है, इनके स्तरों का पता सामाजिक विकास की अवस्थाओं के आधार पर ही लगाया जा सकता है।
संगम ग्रंथ वैदिक ग्रंथों से, खासकर ऋग्वेद से, भिन्न प्रकार के हैं। ये धार्मिक ग्रंथ नहीं हैं। इनके मुक्तकों और प्रबंधकाव्यों की रचना बहुत-सारे कवियों ने की है, जिनमें बहुत-से नायकों (वीरपुरुषों) और नायिकाओं का गुणगान है। इस प्रकार ये लौकिक कोटि के हैं। ये आदिमकालीन गीत नहीं है, बल्कि इनमें परिष्कृत साहित्य का दर्शन होता है। अनेक काव्यों में योद्धा, सामंत या राजा का नामतः उल्लेख करके उनके वीरतापूर्ण कार्यों का सविस्तार वर्णन किया गया है। उनके द्वारा भाटों को दिए गए दानों की प्रशंसा की गई है। ये काव्य दरबारों में पढ़े जाते होंगे। इनकी तुलना होमर युग के वीरगाथा काव्यों से की जा सकती है, क्योंकि इनमें भी युद्धों और योद्धाओं के वीर युग का चित्रण है। इन ग्रंथों का उपयोग ऐतिहासिक प्रयोजन से करना आसान नहीं है। शायद इन काव्यों में उल्लिखित व्यक्तिवाचक नाम, उपाधि, वंश, क्षेत्र, युद्ध आदि आंशिक रूप से ही यथार्थ हैं। संगम ग्रंथों में उल्लिखित चेर राजाओं के नाम दानकर्ता के रूप में ईसा की पहली और दूसरी सदी के दानपत्रों में भी आए हैं।
संगम ग्रंथों में बहुत-से नगरों का उल्लेख मिलता है। इनमें उल्लिखित कावेरीपट्टनम् का समृद्धिपूर्ण अस्तित्व पुरातात्त्विक साक्ष्य से समर्थित हुआ है। इनमें यह भी बताया गया है कि यवन लोग अपने-अपने पोतों पर आते, सोना देकर गोलमिर्च खरीदते और स्थानीय लोगों को सुरा और दासियाँ पहुँचाते थे। यह व्यापार हम केवल लैटिन और ग्रीक लेखों से ही नहीं, बल्कि पुरातात्त्विक साक्ष्यों से भी जानते हैं। ईसा की आरंभिक सदियों में प्रायद्वीपीय तमिलनाडु के लोगों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के अध्ययन के लिए संगम साहित्य हमारा एकमात्र प्रमुख स्रोत है। व्यापार और वाणिज्य के बारे में इससे जो जानकारी मिलती है उसकी विदेशी विवरणों और पुरातात्त्विक प्रमाणों से भी पुष्टि होती है।
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